जागृति यात्रा २०१८ — जब भारतीय रेल की ट्रेन बनी घर …
सुना था लोगों को ट्रेन में प्यार हो जाता है, मुझे तो ट्रेन से ही प्यार हो गया!
२५ दिसंबर की तारीख बस लगी ही थी जब मुंबई के बांद्रा टर्मिनस स्टेशन पर मैंने पहली बार जागृति यात्रा ट्रेन को देखा। पिछले तीन महीनों से इसकी प्लानिंग मेरे दिमाग में चल रही थी — लिखित अर्जी से ले कर टेलीफोनिक साक्षत्कार तक । और फिर बिना स्कॉलरशिप के पूरे ६६,००० रुपये दे कर आने में भी प्लानिंग लग जाती है । तो लगभग २० डब्बों की यह स्पेशल ट्रेन अगले १५ दिनों तक मेरे रहने, खाने, और हाँ नहाने का ठिकाना बनने वाली थी । साथ ही यह हम ५०० लोगों के सामूहिक परिवार का पता भी बनने वाली थी — जिसमें से कुछ ४०० प्रतिभागी मात्रा २०-२७ वर्ष की आयु के थे ।
क्या है यह यात्रा?
आज़ाद भारत रेल यात्रा से प्रेरित हो कर शुरू की गयी जागृति यात्रा अपने ११ वे वर्ष में थी । ८००० किलोमीटर की १५ दिन की यह यात्रा विश्व की सबसे बड़ी ट्रेन यात्रा है । यहाँ हम उद्यमियों को मिलेंगे और समझेंगे कैसे वे भारत का निर्माण कर रहे है, कैसे वे भारत को बदल रहे है। हर छोटा या बड़ा बदलाव अंदर से शुरू होता है । यात्रा के दौरान धूम्रपान वर्जित था । किसी भी प्रकार का नशा करना मना था। यहाँ तक की दिन में चार बार सिर्फ शाकाहारी भोजन उपलब्ध कराने की व्यवस्था थी। जो ढृढ़ निश्चय के साथ आये थे कि यात्रा के नियमों का पालन करेंगे उन्होंने सचमुच अब सुट्टा मारना छोड़ दिया है। दो दिन सिगरेट ना फूकने पर भूख खुल गयी थी ऐसे लोगो की। अच्छी आदतें अपनाने का इससे अच्छा मौका ना था ।
महाराष्ट्र से शुरू हुई यात्रा हमें कर्नाटक, तमिल नाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और गुजरात ले कर गयी। बाहर के दृश्य बदल रहे थे, तापमान बदल रहा था, हमारी केटरिंग टीम खाने का स्वाद भी जगह के अनुसार बदल रही थी — बाहरी बदलाव तो नज़र आ ही रहा था। देश विदेश से आये अन्य यात्रियों को मिलने पर, टियर २ एवं टियर ३ के कई सहभागियों से सिर्फ हिंदी में बात करने पर, दूसरों की जिंदगी कौन से सांचे से बानी है — यह सब समझने पर अंदरूनी बदलाव भी आ रहा था ।
ट्रेन में आम जीवन
ट्रेन पर एक सामन्य दिन कुछ इस प्रकार नज़र आता था। दिन की शुरआत हमारे स्लीपर कोच में गूँज रहे मद्धम मद्धम गानों से होती। जी हाँ, हमारे ट्रेन रेडियो पर मधुर संगीत बजता था। और अब उन गानों को लेकर हम यात्री बड़े भावुक हो जाते हैं। हम जिस जगह जाने वाले है उसकी जानकारी रेडियो पर दी जाती। यात्रा बुकलेट में तो यह जानकारी थी ही। साथ ही वाट्सएप ग्रुप पर देर रात आया हुआ एक मैसेज होता जिसमें पूरे दिन का कार्यक्रम लिखा होता था। सुबह सुबह बाथरूम में नहाने जाना है या नहीं — इस पर काफी चर्चा होती थी। अब ट्रेन ही हमारी स्पेशल थी तो बाथरूम भी तो स्पेशल होंगे ना। एक पूरा कोच बाथरूम बोगी कहलाता था। उसमें पानी के ३ टैंक थे, कुछ अस्थायी बाथरूम्स जो जाड़े पर्दों जैसे दिखते थे, सामान रखने के लिए भारतीय रेल की रैक्स याने की पट्टी थी, और कुल १५ दिनों में चार बार गरम पानी मुहैया कराया गया था। वो गाना है ना — ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए… लेडीज और जेंट्स के बाथरूम उन्ही की बोगियों से लगे हुए थे और एकदम विपरीत दिशा में अलग अलग थे। ट्रेन में हमने अलग अलग प्रकार के स्नान सीखे — कौआ स्नान से ले कर दर्शन स्नान (जो नहा लिया है उसके दर्शन कर लीजिये बस!)
आमतौर पर सुबह के नज़ारे में प्लग पॉइंट ढूंढना भी शामिल होता है। भाई अगर अभी फ़ोन और पॉवर बैंक चार्ज नहीं किया तो ज़िंदा कैसे रहेंगे सारा दिन। नहा धो कर तैयार होने के बाद आमतौर पर हम ट्रेन की फर्श से सारा सामान खाली कर ऊपर बर्थ पर चढ़ा देते है। ऐसा क्यों भला? ताकि हाउसकीपिंग याने गृह व्यवस्था करने वालों को सफाई करने में आसानी हो। यह वह ट्रेन थी जहाँ मूंगफली के छिलके तो क्या टॉफ़ी के छिलके भी मिल जाए तो लोग फट से कूड़ादान में दाल देते। हर कम्पार्टमेंट में एक कूड़ादान रखा था। स्वच्छ भारत का झंडा हम बड़ी जोर शोर से लहरा रहे थे। और क्यूँ ना करते — आखिर आप अपने घर के अंदर कचरा थोड़ी ना करते है। चूहों को निमंत्रण थोड़ी ना देना था कि आइयें, हमारा सूटकेस कुतरियें!
सुबह की चाय ‘गरम है, गरम है’ की आवाज़ लगाते हुए पैंट्री वाले दे जाते थे। हालांकि सलाद को भी वो ‘गरम है, गरम है’ कह कर ही परोसते थे। ट्रेन के इतने सकड़े से गलियारों से होते हुए, समय पर सबको खाना परोसना आसान तो नहीं था। सुबह का नाश्ता कभी ट्रेन में तो कभी स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध कराया जाता था। पेट पूजा के बाद यात्रियों को बसों में भर कर, हेडकाउन्ट किया जाता था। शाम को इतने ही भेड़- बकरी वापस चाहिए, नहीं तो पता चला कोई छूट गया! इतनी बड़ी फ़ौज ले कर चल रहे थे कि ये तो हमारी सुरक्षा के लिए ज़रूरी था। उतना ही जितना कि गले में मंगलसूत्र समान पहना हुआ आई डी कार्ड। सुबह ५ बजे भी अगर आप ट्रेन में घुमते पाए गए तो सिक्योरिटी टीम आपको यात्रा के इस पहचान पत्र के लिए पूछ लेती थी।
हर दिन हम एक से दो स्थानों पर जाते, वहाँ के संस्थापकों को मिलते, उनकी शुरूआती दिनों की कठिनायों को समझते और आज के परिवेश में उनकी क्या महत्ता है — इन सब बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करते। यात्रा में एक बात हमें बार बार कही गयी — ज़रूरी नहीं कि आप कुछ नया करें। जो अच्छा हो रहा है उसी की नकल कर ले। भारत वर्ष इतना बड़ा है कि एक कोने में हो रही चीज़ को अगर आपने ठीक से दूसरे कोने में, अपने गांव, तहसील, शहर या प्रदेश में ठीक से कॉपी भी कर लिया तो भी कई लोगो को रोज़गार मिल जाएगा, कइयों का जीवन स्तर सुधर जाएगा और फिर उस पर इनोवेशन याने की नवप्रवर्तन तो आप कर ही सकते है। किसी भी जगह से निकलने के पहले हम वहाँ के लोगों का शुक्रिया अदा करते यात्रियों के तरीके से। जैसे भारत के लिए जन गण मन है, वैसे ही यात्रियों के लिए ‘यारो चलो’ है। और हाँ, ‘यारो चालों’ गॉड होता है। इसको ले कर हम सभी यात्री सेंटी याने की भावुक होते है।
हर दिन हम एक नए क्षेत्र के रोल मॉडल को मिलने जाते। स्वास्थय से लेकर शिक्षा तक — हर बार कुछ नया सीखने को मिलता, एक नए नज़रिए से दुनिया देखने को मिलती। शाम को जब हम सब ट्रैन पर लौटते तो हेडकाउन्ट को प्रथम नमन करते (जैसे ज़ाकिर खान के लिए बादल इम्पोर्टेन्ट है वैसे यात्रियों के लिए हेडकाउन्ट इम्पोर्टेन्ट है)। दिन भर में इकट्ठी की गयी जानकारी को, लोगो से बातचीत कर ज्ञात हुई नयी कहानियों को हम आपस में शेयर करते। ये शेयरिंग कभी कम्पार्टमेंट में कोहोर्ट वालो के साथ होती, कभी ग्रुप के साथ, कभी ए सी चेयर कार में रिसोर्स पर्सन्स के साथ तो कभी निर्णायक गणो के सामने प्रस्तुति के तौर पर। लाइट्स आउट याने की बत्तियां बंद करने का समय ११ बजे होता था।
ज़िन्दगी की सीख मिली ट्रेन पर
इस ट्रेन ने कुछ भ्रम तोड़े और कुछ नए सत्य स्थापित करे। जैसे की खुद का कारोबार शुरू करने के लिए कोई सही वक़्त नहीं है, कोई शुभ मुहूर्त नहीं है, कोई परफेक्ट डिग्री नहीं है। एक किसान वो है जो कभी स्कूल नहीं गयी और एक अभिषेक सिंघानिआ है जो आई आई टी मद्रास से पढ़ाई करने के दो साल बाद अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ गत चार वर्षो से कलकत्ता में जैविक खेती कर रहे है। स्वदेस फिल्म के शाह रुख खान की तरह हमारे एक यात्री जर्मनी से वापस, अपने देश आ कर कुछ करना चाहते है। इसरो में काम कर चुके इन शख्स का रुझाव भी खेती में ही है। पूना से आयी सोनाली भूसरे अपनी नौकरी के साथ-साथ एक सोशल एंटरप्राइज चलाती है। उनके बुटीक से चार महिलाओं को रोज़गार मिल रहा है। दिवाली पर काम इतना था कि वो अपने घर नाशिक नहीं गयी क्यूंकि काम ही पूजा है और ग्राहक ही भगवान है। वहीं महाराष्ट्र के वर्धा से आये हुए सारंग रघताते हमेशा तिरंगा अपने बैग में ले कर चलते है। आखिर दिल है हिन्दुस्तानी!
यह ट्रेन अक्षय पत्र की तरह थी जो बस देते जाती। कुछ लोगों को साथ में कुछ नया शुरू करने के लिए साथी मिले। कुछ लोगों को नए तरीके से काम करने की सोच मिली। तो कुछ को नए जोश के साथ काम करने की ऊर्जा प्राप्त हुई। हर कोई अपने लिए दोस्त ले कर गया। हर शख्स ढेर सारी यादें समेट कर ले गया। मुझे याद नहीं किस दिन मैंने सार्वजनिक स्थान पर रहते हुए खुद के खाने की थाली परोसी हो। दूसरों की प्लेट से खाना खाने में कतार में लगने का समय तो बचता ही था और अपनापन भी लगता था। वो कहते है ना कि एक ही थाली में खाने से प्यार बढ़ता है, बस वही! एक वक़्त था जब मैं किसी का झूठा नहीं खाती थी, पर यहां तो सभी अपने थे। हमें क्या पता था यह ट्रेन हमारा घर ही बन जाएगी। एक ऐसा घर जो आपके दिल में रहता है। आप वहाँ लौट तो नहीं सकते पर उसकी यादें हमेशा चेहरे पर मुस्कान लौटा देती है। #यारोचलो
अगर यह पढ़ कर आप में भी जागृति यात्रा पर जाने की उत्सुकता है, तो उनकी वेबसाइट पर अभी से रजिस्टर कर दीजिये: http://www.jagritiyatra.com